06 मार्च, 2024

0.1/A हरि और हाइड्रोजन की भूमिका


JAY SRI RAM




 

[ 1/A ] 
भूमिका

 

 

 

ब्रह्मांड क्या है ?

इसकी रचना कब हुई ?

इसकी रचना किसने की ?

इस ब्रह्मांड की रचना कैसे हुई ?

 

उपरोक्त सभी प्रश्न समान्य प्रश्नों की तरह साधारण प्रश्न नहीं है बल्कि अति-विशेष प्रश्न है। दिये गये उपरोक्त प्रश्न अति-विशेष है क्योंकि इन प्रश्नों का उत्तर देने वाली किताबों की संख्या एक नहीं बल्कि अनेक है। ये किताबें  एक ओर अति आधुनिक-काल की है, वही दूसरी ओर अति-प्राचीन काल की भी है। ब्रह्मांड के रहस्यों के बारे में दुनियाँ के सभी पवित्र-ग्रंथ अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार विवेचना करते है। आधुनिक काल में लिखी जाने वाली विज्ञान की किताबें भी इस विषय पर मौन नहीं रहती है बल्कि अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार ब्रह्मांडीय रहस्य का विवेचना करती है। प्रश्न तो एक ही प्रकार का है लेकिन उत्तर देने वाली किताबें दो प्रकार की है।

यदि हम सभी आधुनिक विज्ञान का समर्थन कर रहे हैं और प्राचीन-ग्रंथों  को नजर-अंदाज कर रहे हैं तो इसका मतलब ये निकलता है कि हमारे पूर्वज अज्ञानी और मूर्ख थे क्योंकि उनकी बातों का ठोस साक्ष्य नहीं मिल पाता है। इसके विपरीत यदि हम सभी प्राचीन ग्रंथों के मत को मानते है और विज्ञान को नजर-अंदाज करते है तो हम सभी पर अंधविश्वास में जीने का आरोप लगाया जा सकता है। यहाँ पर मानव-सभ्यता के लिये एक धर्म-संकट उत्पन्न हो जाता है कि वो वेद और विज्ञान ( शास्त्र और साइंस) दोनों में से किसकी बात का अनुसरण करे ? मेरी इस पुस्तक में इस व्यक्तिगत धर्म-संकट का निवारण किया गया है और यह साबित किया गया है कि साइंस और शास्त्र दोनों ही मिलकर एक साथ एक ही परम सत्य कि ओर ईशारा करते है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार जगत की रचना ईश्वर ने की है और विज्ञान के अनुसार जगत की रचना अति सूक्ष्म कणों (गोड-पार्टिकल, प्रोटान और हाइड्रोजन आदि ) से हुई है। आप को यह जानकर बहुत ही आश्चर्य होगा कि इन सभी सूक्ष्म-कणों में ही वो सभी परम-ईश्वरीय गुण विराजमान है जिनका वर्णन ब्रह्मांड-पुराण सहित शेष 17 पुराणों, गीता और श्रीरामचरितमानस और वेदों आदि में किया गया है। इस पुस्तक को समझने के लिये निम्नलिखित बात को समझना आवश्यक है।                      

ईश्वर एक है और रूप अनेक है। भगवान अलग-अलग लीलाओं को करने के लिये अलग-अलग रुप को धारण किया करते है। ईश्वर के अलग-अलग रूपों के गुण और महिमाये भी अलग-अलग होती है। ईश्वर के एक होने और उनके रुप के अनेक होने के संदर्भ में श्रीरामचरितमानस में आया है कि :-

एक अनीह अरूप अनामा । अज सच्चिदानंद पर धामा
व्यापक विश्वरूप भगवाना । तेहिं धरि देह चरित कृत नाना

भावार्थ :- जो परमेश्वर एक है, जिनके कोई इच्छा नहीं है, जिनका कोई रूप और नाम नहीं है, जो अजन्मा, सच्चिदानन्द और परमधाम है और जो सब में व्यापक एवं विश्व रूप हैं, उन्हीं भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकार की लीला की है।

[ बालकांड.दोहा 12.2 ]

उपरोक्त पंक्तियों से यह पता चलता है कि भगवान एक ही हैं और वही भगवान अनेकों रूपों को धारण किया करते है। भगवान के रूपों को लेकर बहुत से भक्तों में तर्क-वितर्क और विवाद उत्पन्न हो जाता है। हरि-भक्तों के मन में भगवान के अलग-अलग रूपों को लेकर उठने वाले संदेहों को पूर्णतः दूर करने के लिये निम्नलिखित सारणी और वर्गीकरण को समझना आवश्यक है।

ईश्वर एक है और रुप अनेक है ।

क्र.

रुप का नाम

श्रोत

वर्गीकरण

(a)        

राम

रामायण आदि

मानव

(b)        

कृष्‍ण

गीता

मानव

(c)        

परशुराम

रामायण और महाभारत आदि

मानव

(d)        

कपिल

विष्णु-पुराण आदि

मुनि

(e)        

वामन-अवतार

विष्णु-पुराण आदि

मानव

(f)         

वराह

विष्णु-पुराण आदि

थलचर-जंतु

(g)        

मत्सय

विष्णु-पुराण आदि

जल-चर

(h)        

कूर्म (कछुआ)

विष्णु-पुराण आदि

जल और थल दोनों

(i)         

नरसिंह

विष्णु-पुराण आदि

नर और जंतु दोनों

(j)         

मोहनी

विष्णु-पुराण आदि

स्त्री

(k)        

अर्धनारीश्वर

शिव-पुराण

स्त्री और पुरुष दोनों

 

(l)         

जल (H2O)

गीता   [ 7.8 ]

द्रव

(m)       

प्रकाश

गीता    [7.8]

उर्जा

(n)        

ओंकार

गीता    [7.9]

एक अक्षर

(o)        

गंध

गीता    [7.10]

वायु

(p)        

सूर्य

गीता    [10.21]

एक तारा

(q)        

चंद्रमा

गीता    [10.21]

एक उपग्रह

(r)         

मरीचि नामक वायु

गीता    [10.21]

एक प्रकार की गैस

(s)        

सामवेद

गीता    [10.22]

एक पुस्तक

(t)         

मन

गीता    [10.23]

एक अदृश्य  वस्तु

(u)        

शंकर

गीता    [10.23]

महादेव

(v)        

भृगु

गीता    [10.24]

महर्षि

(w)       

वायु

गीता    [10.31]

अदृश्य परमाणु

(x)        

पीपल

गीता    [10.26]

पेड़/वनस्पति

उपरोक्त सारणी को ध्यानपूर्वक देखने यह साबित होता है कि भगवान एक है और रुप अनेक है। इस आधार पर निम्नलिखित निष्कर्ष निकलता है।

1. भगवान का रुप जड़ भी है और चेतन भी है। जल, अग्नि आदि जड़ प्रकार की है। मत्स्य और राम आदि रुप चेतन प्रकार है। बहुत से लोगों का मानना होता है कि भगवान केवल चेतन रुप में ही विराजमान होते है लेकिन ऐसा नहीं है। गीता में भगवान ने अपनी आठ प्रकार की जड़ रूपों को भी बताया है।

2. भगवान जीव भी है और पेड़ (पादप) भी है। वराह आदि रुप जीव का है और पीपल रुप पेड़ का है। जंतु और पादप दोनों सजीव है फिर भी थोड़ा सा अंतर होता है।

3.भगवान का रुप थलचर (वराह), जलचर (मत्स्य), उभयचर (कछुआ) आदि सभी का है।

4. भगवान का राम रुप क्षत्रिय का है और वामन तथा परशुराम आदि रुप ब्रह्माण का है ।

5. भगवान का मोहनी अवतार का रुप स्त्री का है,और राम रुप पुरुष का है और अर्धनारीश्वर का रुप स्त्री-पुरुष दोनों का है ।

इस पुस्तक में भगवान के मरीचि रुप (हाइड्रोजन) का गुणगान किया गया है। गीता के 10 वें अध्याय के 21 वें श्लोक के अनुसार परमात्मा का एक रुप पवित्र-वायु (मरीचि) भी है। परमात्मा का यह वायु रुप ही, उन सभी परम गुणों को धारण करता है जिनका वर्णन श्रीरामचरितमानस,  गीता और प्राचीनग्रंथों की पंक्तियों में किया गया है। उस परमात्मा ने श्रीकृष्ण रुप (नर) रूप में आकर अपने मरीचि रुप और अन्य सूक्ष्म रूपों की बखान करते हुए बताया है कि वो ही अनादि (राम/कृष्‍ण) अर्थात प्रारम्भ-कर्ता है। इस पुस्तक में यह दिखाया गया है कि परमात्मा का वायु रुप जिसका नाम मरीचि है, वो ही उन सभी परम-गुणों को धारण करता है और वैज्ञानिक तरीके से संतुष्ट भी करता है जिन परम गुणों का वर्णन शास्त्रों में किया गया है।

बहुत से भक्तगणों का मानना है कि हाइड्रोजन शब्द तो शास्त्र में कही भी नहीं आया है, फिर हाइड्रोजन को आधार क्यों बनाया गया है ? इसको समझने के लिये शब्दकोषों (Dictionoary) के निर्माण-प्रक्रिया के एतिहासिक स्वरुप को समझना आवश्यक है।

भारत की प्राचीनतम भाषा संस्कृत है। पृथ्वी पर सबसे अधिक व्याप्त द्रव को प्राचीन समय में जल और नीर कहा जाता था। बाद में जब ईस्लामिक-बादशाहों  की सत्ता (हुकूमत) आयी तब से इसको पानी और आब भी कहा जाने लगा । उन दिनों हिंदी-ऊर्दू (अरबी/फारसी आदि) शब्दकोषों का निर्माण किया गया होगा । यह निर्माण उस समय के ऊँच विद्वानों द्वारा किया गया होगा। इसके बाद ईसाईयों के लार्ड (राजा) की सत्ता आयी और फिर इस द्रव को वाटर भी कहा जाने लगा । उन दिनों हिंदी-अंग्रेजी आदि शब्दकोषों का निर्माण किया गया होगा ।  शब्दकोषों की निर्माण का आधार, वस्तुओं के समान गुण और परिभाषा रही होगी । उस समय के विद्वानों ने जल को वाटर (Water) वायु को एअर (Air), सूर्य को सन (sun), प्रेम को लव (Love), पिता को फादर (father) कह दिया । उन दिनों जो वस्तुएँ, समाज के लिये और भावनाओं के अदान-प्रदान के लिये आवश्यक थी, उनका अनुवाद सबसे पहले हुआ होगा हिंदी एक धनी (भाषा) है जिसमें सभी वस्तुओं के नामकरण के लिये एक विशेष शब्द है। केप्लर (कापरनिकस, गौलिलीयो आदि ) द्वारा 9 ग्रहों की खोज की गयी और उनके गुणों के अनुसार उनका नामकरण कर दिया गया । उर्दू, अरबी, चीनी आदि भाषाओं में इन ग्रहों के नाम अंग्रेजी के अनुसार ही रखे जाते है जबकि हिंदी भाषा में, सनातन-धर्म में 9 ग्रहों की पूजा की विवेचना बहुत पहले से ही की गयी है। इसी प्रकार एटॅम (ATOM) को परमाणु, मोल्क्युल (Molecule) को अणु आदि कहा गया है। जिस समय अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश के निर्माण का प्रारंभिक चरण चल रहा था, उस समय हाइड्रोजन की भूमिका हमारे दैनिक जीवन में नहीं थी, इसलिये इसका अनुवाद नहीं हो पाया। इसका सबसे बड़ा कारण यह भी हो सकता है कि अंग्रेजों के भारत-आगमन के कई बहुत वर्षों बाद हेनरी-केवेंडिस ने हाइड्रोजन का पता लगाया।

अब वह उचित समय आ गया है कि विश्व के सर्वशक्तिशाली और सर्वव्यापी कण  अर्थात हाइड्रोजन का हिंदी अनुवाद किया जाय।  मैंने (लेखक- एस. रामायण) मरीचि नामक वायु का अंग्रेजी अनुवाद हाइड्रोजन के रुप में किया है। विज्ञान के अनुसार वायु बहुत से गैसों का समांगी मिश्रण है। वायु जो कि आँखों से दिखाई नहीं देती है, वो भी एक पदार्थ होती है और उसमें भी अलग-अलग प्रकार होते है। शास्त्रों में गैस शब्द का अभाव है अतः वायु के ही 49 प्रकार बता दिये गये है। (विधिवत गुण संख्या 45/51) वायु के 49 प्रकार के होने की बात सुंदरकांड (चलहु मारुत उनचास) और गीता दोनों में की गयी है। इन 49 प्रकार वायुओं  (गैसों) में एक वायु मरीचि भी होती है। मैंने (लेखक- एस. रामायण) इस मरीचि नामक वायु का अंग्रेजी अनुवाद हाइड्रोजन के रुप में किया है। जिस प्रकार वाटर और जल एक ही चीज (H2O) के नाम है, ठीक उसी प्रकार मरीचि और हाइड्रोजन (H2) एक ही चीज के नाम है। मेरी पुस्तक में भगवान के मरीचि (हाइड्रोजन) रुप की विवेचना की गयी है। मरीचि शब्द कम व्यापक है जबकि उसी चीज का अंग्रेजी-अनुवाद हाइड्रोजन सबसे अधिक व्यापक है, इसलिये इस पुस्तक में हरि के मरीचि रुप को हरि-हाइड्रोजन का नाम दिया गया है। ईश्वर को वायु रुप देने का साहस मैंने (एस.रामायण) स्वयं नहीं किया है बल्कि ईश्वर ने अपने कृष्‍ण रुप में स्वयं बताया है कि

आदित्यानामहं विष्णु-र्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी॥

[ अर्थ :  मैं अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु और ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूँ तथा मैं उनचास वायुओं में मरीचि नामक वायु (हाइड्रोजन) और नक्षत्रों का अधिपति चंद्रमा हूँ|  [ गीता 10.21]

जब भगवान ने स्वयं को 49 प्रकार की वायु में एक प्रकार की मरीचि नामक वायु बताया है तो हम सब इनके इस रुप को स्वीकार क्यों नहीं करते है ?

मरीचि का अनुवाद हाइड्रोजन ही क्यों ? : मरीचि का अनुवाद हाइड्रोजन ही क्यों? हाइड्रोजन के स्थान पर आक्सीजन,नाइट्रोजन अन्य गैसें क्यों नहीं ? इसके तीन कारण है।

Ø  पहला कारण यह है कि हरि-हाइड्रोजन गैस मरीचि शब्द के अर्थ के गुण को धारण करती है।

Ø  दूसरा कारण यह है कि यह सबसे पहले प्रकट होने वाला परम-तत्व है जो कि वायु रुप में है। सृष्टि के प्रारंभ में भगवान के वायु और सूक्ष्म रुप में प्रकट होने की बात पुराणों और विज्ञान दोनों में की गयी है।

Ø  तीसरा कारण है कि मेरे हरि-हाइड्रोजन सभी परम-ईश्वरीय गुणों को धारण करते है। इसको विधिवत गुण संख्या 45/51 में दिखाया गया है ।

Ø  शास्त्रों में हरि अर्थात भगवान को आद्र कहा गया है। भगवान के एक हजार नामों में एक नाम आद्र भी होता है। आद्र्ता का संबन्ध वायुमंडल से है। माया-लोक पृथ्वी के निचले वायुमंडलीय परत में आक्सीजन रुपी माया का प्रभाव प्रबल रहता है लेकिन जब इसी वायु में भगवान आद्र अर्थात हाइड्रोजन बढ़ने लगते है तो वायु की आद्र्ता बढ़ने लगती है। वायुमंडल भगवान-आद्र की संख्या जलवाष्प के माध्यम से बढ़ती है।  जलवाष्प कुछ और नहीं बल्कि हाइड्रोजन और उनकी माया संयोग होता है।

मरिची शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है वह शक्ति या तत्व जिसके योग से वस्तुओं आदि का रुप आँखों से दिखाई देता है | वास्तव में मरीचि हाइड्रोजन-तत्व ही है जिसकी संयोग (संलयन) से नाभिकीय-प्रकाश पृथ्वी पर पहुँचता है और हमें वस्तुएँ दिखाई देती है। यह हाइड्रोजन एक प्रकार की वायु भी है। 18 पुराणों के बीच में एक ब्रह्मांड-पुराण भी आता है। इस ब्रह्मांड-पुराण और बिग-बैंग के प्रसिद्ध वैज्ञानिक सिद्धांत दोनों ही के अनुसार, जगत रचना के समय भगवान सूक्ष्म रुप में प्रकट हुए थे।  ब्रह्मांड-उत्पति के संदर्भ में विष्णु-पुराण में भी बताया गया है कि प्रभु ने पलक झपकते ही अर्थात अत्यंत कम समय में ब्रह्मांड की रचना कर दी थी । ब्रह्मांड-उत्पति के समय सबसे पहले बनने वाला तत्व का नाम हरि-हाइड्रोजन ही है। इस तत्व का अवतरण 1.43 सेकेंड के अंदर हो गया था । ठीक उसी समय हरि-हाइड्रोजन के तीन रुप क्रमशः प्रोटियम-ब्रह्मा, ड्युटेरियम-विष्णु और ट्राइटेरियम-शिव भी प्रकट हुए थे। मेरी इस पुस्तक में ईश्वर के इस हरि-हाइड्रोजन रुप  के 51 लक्षणो का गुणगान किया गया है। प्रत्येक लक्षण के लिये एक अलग अध्याय निर्धारित किया गया है।

 

नोट : - जैसे हाइड्रोजन-परमाणु, हाइड्रोजन के अणु और हाइड्रोजन के आयन तो मूल रुप से एक ही संकेत से दर्शाये जाते हैं फिर भी विज्ञान की भाषा में इनमें थोड़ा-थोडा़ फर्क है वैसे ही भगवान के विष्णु, ब्रह्म-स्वरुप, नारायन और मरिची आदि रुप भी आपस में संबन्ध व्यक्त करते हैं। इन सबको आगामी भविश्य में अगली पुस्तक के माध्यम से व्यक्त किया जायेगा। 


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1/B

सृष्टि-रचना (ब्रह्मांड-रचना) के संदर्भ में प्राचीन-ग्रंथों का मत

 

वर्तमान समय में सृष्टि-रचना के संदर्भ में जानकारी प्राप्त करने के लिये विज्ञान ने प्रयोगों और अनुसंधानों में बहुत ही अधिक पैसा, परिश्रम और समय दिया है। गोड-पार्टीकल (हिग्स-बोसोन) का प्रयोग इस बात का प्रमाण है। इतना सब करने के बाद, विज्ञान जिन आँकड़ों और तथ्यों पर पहुँचता है, उन्हीं तथ्यों एवम्‌ आँकड़ों का खुलासा किसी न किसी रुप में प्राचीन-ग्रंथों में बहुत पहले ही हो चुका है। ब्रह्मांड के रहस्यों के विषय में वेद, पुराण आदि सभी मत रखते है। वेद सबसे अधिक सटीक मत रखते है।

18 पुराणों के बीच में एक ब्रह्मांड-पुराण भी आता है। ब्रह्मांडपुराण और श्रीविष्णुपुराण के प्रथम अंश के अनुसार भगवान (ईश्वर/परमात्मा) का प्रारंभिक रुप अव्यक्त प्रधान-तत्व था। इस प्रधान-तत्व से महा-तत्व की उत्पति हुई है। महा-तत्व से अहंकार की और अहंकार से आकाश की उत्पति हुई । आकाश से वायु और वायु से तेज (आग) की उत्पति हुई । तेज (आग) से जल और जल से पृथ्वी की उत्पति हुई । इन सबके संयोग से अंड की रचना हुई। इसके बाद उसी आदि-कर्ता भगवान ने उसी अंड से जन्म लिया । इससे साबित होता है कि भगवान अपनी बनायी हुई रचना में स्वयम्‌ अवतरित होते है। ऐसे ही देवताओं का नियम है। यह सब सर्ग, कल्प, कालांतर, इंद्र और मनु आदि के परिवर्तनशील होने के कारण होता है।

Ø  जब जगत उत्पति के समय पंचभूतों में अग्नि का उत्पति हो ही गया था तो फिर अलग से आठ वसुओं में अग्नि-देव की उत्पति क्यों हुई है ? यह सब देवता अधिकारी के रुप में नियंत्रण और संचालन के लिये प्रकट हुए।  

Ø  जब चंद्रमा (सोम) का नाम आठ वसुओं  (अदिति और कश्यप के पुत्र) में आता ही है तो इसके बावजुद वो ॠषि अत्रि के पुत्र क्यों कहे गये है ?  इन घटनाओं के बहुत समय बाद समुंद्र-मंथन के १४ रत्नों की कथा में चंद्रमा-उत्पति की बात आती है। एक ही चीज की उत्पति तीन बार आखिरकार कैसे हो सकती है ? ऐसा इसलिये है कि देवता अलग-अलग रूपों में एक साथ प्रकट हो सकते है।

Ø  भगवान-राम के मानवीय-अवतार लेने से पहले बाल्मिकीजी राम-राम जपते थे जबकि भगवान राम का मानव-अवतार बाद में हुआ ।

Ø  उपरोक्त पौराणिक-आँकड़ों के अनुसार वायु की उत्पति तो प्रारंभिक चरण में ही हो गयी थी। जब वायु की उत्पति पहले हो ही गयी थी तो इसके बहुत समय बाद पवन-देव के जन्म की कथा (अदिति के आठ वसु) आखिर क्यों आती है ? जब वायु की उत्पति शुरुआत में हो ही गयी थी तो इसके बाद 49 वायुओं के जन्म की कथा क्यों आती है ? इस प्रकार वायुओं की संख्या 51 हो जानी चाहिये लेकिन 51 न होकर 49 प्रकार के ही वायु बताये गये है। इसका कारण है कि भगवान अपनी रचना में लीला करने के लिये खुद प्रकट हुआ करते है। 49 प्रकार की वायुओं में भगवान स्वयम्‌ मरीचि नामक वायु के रुप में प्रकट हुए । भगवान के एक हजार नामों में एक नाम मरीचि भी होता है। गीता (10.21) में भगवान ने खुद को मरिची नामक वायु से संबोधित किया है।

Ø   भगवान-राम के मानवीय-अवतार लेने से पहले बाल्मिकी जी राम-राम जपते थे। भगवान राम का मानव-अवतार बाद में हुआ । ठीक ऐसा ही भगवान और देवताओं के प्रकट होने से पहले उनका प्राकृतिक रुप प्रकट हुआ और फिर उनका अपना रुप (व्यक्ति के रुप में) बाद में प्रकट हुआ ।

Ø  विज्ञान के अनुसार सबसे पहले प्रकट होने वाली वायु का नाम हाइड्रोजन है और इसी हाइड्रोजन से सबसे तेज आग उत्पन होती है और इसके साथ ही जलवाष्प भी बनता है जो ठंडा होकर अंत में जल बन जाता है। जल से पृथ्वी (लग्भग सम्पूर्ण भाग) बनी है। गहन पूर्वक पढ़ने पर पता चलता है कि सृष्टि-रचना का नियम त्रिगुणात्मक नियम का पालन करती है। यह त्रिगुण क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश के है। यही क्रम सृष्टि-रचना के प्रारम्भ में था और अंत तक भी रहेगा।  इस पुस्तक में भगवान के कण रुप की महिमा का गुणगान किया गया है।

 

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1/C

जगत रचना में हरि और उनकी माया

दोनों का ही योगदान

 

 

बहुत से हरि भक्तों का मानना होता है कि केवल और केवल भगवान ही जगत का रचना किये है लेकिन यह सर्वथा सत्य नहीं है। जगत, जीव अथवा भूत रचना में दो चीजों का प्रमुख भूमिका है।

1.        हरि अर्थात भगवान

2.        उनकी माया

इस संदर्भ में आया है कि

सुनु रावन ब्रह्मांड-निकाया ।  

पाइ जासु बल बिरचति माया 2

जिनका बल पाकर माया संपूर्ण ब्रह्मांडों के समहों की रचना करती है ।|

 ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै ।

 वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह हैं।  (बालकांड, श्रीरामस्तुति)

जिस प्रकार एक ही ईश्वर के अनेकों रुप है, ठीक उसी प्रकार माया के भी अनेकों रुप है। परमात्मा के हरि-हाइड्रोजन रुप के लिये माया का नाम आक्सीजन, नाइट्रोजन और कार्बन है। ईश्वर (हाइड्रोजन) और उनकी माया के आकर्षण (प्रेम) के बल पर ही इस जगत की रचना हुई है। हरि-हाइड्रोजन समान्यतः धनात्मक गुण वाले होते है और इसलिये ये आत्मिक-धन (अध्यात्मिक-गुण) को बढ़ाते है। इसके विपरीत इलेक्ट्रान, आक्सीजन, नाइट्रोजन और कार्बन ऋणात्मक गुण वाले होते है। इस प्रकार ईश्वर और माया के आकर्षण से ब्रह्मांड का कण-कण (जीव, भूत, नर-मादा आदि) जुड़ा हुआ है।

हीलियम सन्यासी तत्व है जिसका स्थान हमेशा भगवन् के हरि-हाइड्रोजन रुप के निकट है। बिग-बैंग के सिधांत के अनुसार लिथियम भी लगभग उसी समय प्रकट हुआ था, यही कारण है कि हाइड्रोजन के समान लिथियम भी कल्याणकारक है। हरि-हाइड्रोजन और लिथियम की बैटरी से बढ़ती आबादी का बोझ उठाया जायेगा और मानव सभ्यता आगे बढ़ेगी। आक्सीजन और माया के एक समान लक्षण को विधिवत दर्शाने का काम मेरी अगली पुस्तक में किया जायेगा। प्राणायाम रुपी योग द्वारा इसी आक्सीजन रुपी माया पर काबू पाया जाता है। श्वशन भी एक यज्ञ कर्म है।

जो आत्म-हत्या करते है, उनको  यज्ञ भंग करने दंड मिलता है। माया से भागकर छिपना जीवन नहीं है बल्कि माया पर काबू पाना ही एक योगी का वास्वतिक लक्षण है।


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1/D

एक ही चीज जड़ और चेतन कैसे हो सकती है ?  

 

भगवान ने गीता में अपनी जड़ और चेतन दोनों प्रकार के बारे में बताया है। निम्नलिखित तथ्यों पर विचार किया जाय।

v  इस बात को साइंस के साथ-साथ शास्त्र भी मानते है कि सूर्य पृथ्वी से बहुत बड़ा (13 लाख गुना) है और यह बहुत ही अत्यधिक गर्म ( लगभग 6000 K, बाहरी सतह का ताप) है। वही सूर्य पृथ्वी पर आकर कुंती के साथ संयोग किया और फिर कर्ण का जन्म हुआ।  यह कैसे हो सकता है ?

v  जिस अग्नि-देव के कारण पका हुआ भोजन मिलता है, वही अग्नि-देव वनवास के समय माता-सीता को अपनी शरण में रखे थे ?

v  गंगाजी गंगोत्री से लेकर बंगाल की खाड़ी तक जल रुप में बह रही है। यह कैसे हो सकता है कि वो शांतनु के साथ संयोग करके पुत्र देवव्रत का जन्म दे दे ?  

v  जो पृथ्वी एक पिंड के रुप में सूर्य के चारों ओर चक्कर लगा रही है, वही पृथ्वी पाप बढ़ने पर भगवान से प्रार्थना कैसे कर सकती है ? आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वैज्ञानिकों ने हाल में ऐसा कुछ संकेत पाया है जिसके आधार पर यह यह कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण  पृथ्वी ग्रह ही सजीव है।

उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर आत्मा के आधार पर निम्न प्रकार से दिया जा सकता है। जैसे एक ही जीमेल एक साथ स्मार्ट-फोन और लैपटॉप नामक दो हार्डवेयर लोगिन रहता है वैसे ही एक ही आत्मा अलग-अलग रूपों में प्रवेश कर सकती है।

v  भगवान सूर्य देव का वो प्राकृतिक-रुप है जो अत्यधिक ताप पर तप रहा है लेकिन कुन्ती को दर्शन देने वाला रुप मानवीय था । इन दोनों रूपों की आत्मा एक ही थी ।

v  माता गंगा का वो प्राकृतिक-रुप है जो गंगोत्री से लेकर समुंन्द्र तक बहता है लेकिन जिस रुप ने देवव्रत को जन्म दिया वो रुप मानवीय है।

v  जो अग्निदेव सबको पका हुआ भोजन खिलाते है, वो उनका प्राकृतिक-रुप है और लेकिन अग्निदेव का जो रुप सीता जी को सुरक्षित रखा था, वो रुप मानवीय था ।

v  इसी प्रकार मेरी पुस्तक में हाइड्रोजन नामक सूक्ष्म-कण,  भगवान का प्राकृतिक-रुप है। जब कोई सगुण-उपासक भक्त अपनी भक्ति से किसी भगवान अथवा देवता को अपनी भक्ति से प्रसन्न कर देता है तो उसके भक्ति और आस्था से संबंधित भगवान या देवता अपनी प्राकृतिक-रुप से मानवीय रुप में प्रकट हो जाते है। इस प्रकार कहा जाय तो सूर्य को देखना असान है लेकिन सूर्यदेव का दर्शन पाना कठिन है। सूर्यदेव का दर्शन कर्ण, कुंती, हनुमान आदि जन किये थे। जल को देखना असान है लेकिन जलदेव का दर्शन कठिन है। अग्नि को देखना असान है लेकिन अग्निदेव का दर्शन कठिन है। इस प्रकार हाइड्रोजन को पाना असान है लेकिन भगवान के साकार रुप का दर्शन कठिन है। इन सब विषयों पर गहन अध्ययन करके एक पुस्तक के रुप में वैज्ञानिक विचार धारा व्यक्त किया जायेगा।  

v  मै लेखक एस. रामायण भगवान के विष्णु रुप में आस्था और विश्वास रखता हूँ। मैंने भगवान से उनकी लीला को विज्ञान की भाषा में समझने के लिये प्रार्थना किया था और फिर मुझे इस ज्ञान की प्राप्ति हुई है। मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि वो मुझें हमेशा एक सगुण और मूर्ति-पूजक भक्त बनाये रखे।

 

 

1/E

नोट

 

 (1)    इस पुस्तक में बहुत से स्थानों पर शास्त्र और साइंस शब्द का प्रयोग एक साथ किया गया है। साइंस अंग्रेजी भाषा का एक शब्द है जिसका हिंदी अनुवाद विज्ञान होता है। आजकल बोल-चाल की भाषा में साइंस शब्द भी व्यापक हो गया है इसलिये इसका प्रयोग हिंदी जैसा ही कर दिया गया है। शास्त्र शब्द का प्रयोग भी दो तरीके से होता है। वास्तव में शास्त्र एक प्रकार का किताबों का समूह है जिनकी संख्या 06 होती है। भारत के अति-प्राचीनकाल में घटित घटनाओं  को व्यक्त करने वाले इतिहास को शास्त्र भी कहा जाता है। इस पुस्तक में शास्त्र शब्द का प्रयोग 04 वेद, 06 शास्त्र, 18 पुराण, 108 उपनिषद, मंत्र, श्लोक, चालीसा आदि के संग्रह को एक साथ प्रतिनिधित्व करने के लिये किया गया है ।

(2)   इस पुस्तक में लगभग सभी स्थानों पर हरि-हाइड्रोजन की प्रतिशत मात्रा को परमाणुओं की संख्या के अनुसार दिखाया गया है। यह प्रतिशत मान विज्ञान की किताबों, इंटरनेट की विभिन्न साइटो से लिया गया है। किताबों और विभिन्न साइटों की मानों अल्प रुप से विभिन्नता है। व्याकरण और समान्य भूल की मात्रा अति-अल्प रुप से पुस्तक में मौजुद हो सकती है। इसके लिये मैं लेखक एस. रामायण क्षमा चाहता हूँ । इसको पूर्ण रुप से शुद्ध अगले संस्करण में कर दिया जायेगा [सर्वाधिकार © लेखक ]  

(3)   बहुत से भक्त जन के मन में यह प्रश्न उठ रहा होगा कि हाइड्रोजन से पहले तो प्रोटान, क्वार्क, लेप्टान आदि कणों का प्रकटीकरण हो गया था फिर हाइड्रोजन ही आदि-कर्ता क्यों ? इस पुस्तक में ईश्वर के परमाणु रुप की व्याख्या की गयी है न कि नाभिकीय-कण रुप की । मेरी आगामी पुस्तक में इस प्रश्न का निवारण किया गया है और यह बताया गया है कि ईश्वर का आदिपुरुष-रुप (गोड-पार्टिकल) से अक्षर-पुरुष, क्षर-पुरुष, परमब्रह्मा, ब्रह्मा, गायत्री, महाविष्णु, विष्णु आदि का प्रकटीकरण हुआ।  गायत्री, दुर्गा, माया, क्ष्रर-पुरुष आदि में ही नाभिकीय- कणों का गुण विराजमान है। इस पुस्तक पर कार्य प्रगति पर है। जिस प्रकार से प्रोटियम, हाइड्रोजन-परमाणु, हाइड्रोजन-गैस के अणु मूल रुप से एक होकर भी अलग है, वैसे भगवान और उनके रूपों में भी संबन्ध है।

नोट :  आक्सीजन और माया के समान-लक्षण को विधिवत तरीके से मेरी आगामी रचना में प्रकट किया जायेगा । इस पुस्तक को वजन आदि की दॄष्टि से हल्का बनाने की वजह से बहुत से गहन विचारों को प्रस्तुत नहीं किया गया है।

 

(4)   मेंरे प्रभु श्रीराम (अयोध्या वाले) ने धरती पर नर लीला की और उनके जीवन पर अधारित महाकाव्य को रामायण कहा गया है। मेरा (लेखक का)  नाम रामायण ही है। मेंरे पिताजी को रामायण अधिक प्रिय पुस्तक लगती थी, इसलिये मेरा नाम रामायण ही रख दिया। मेंरे प्रभु राम एक है और उनके रुप अनेक  है। श्रीरामजानकी मंदिर (श्री सिंगार बाबा के मठिया, बलिया उ0प्र0) में विराजित प्राण-प्रतिष्ठित प्रतिमा के पूजन से मुझे, ईश्वर के इस रुप हाइड्रोजन का ज्ञान प्राप्त हुआ है। यह मंदिर भृगुक्षेत्र (बलिया) के बैरिया क्षेत्र में स्थित है। मैं और मेंरे परिवार ने ठाकुरजी (रामजी प्रभु) की बहुत सेवा किया है। श्री गणेश भगवान सहित श्री राम प्रभु,  सभी देवों, प्रिय मित्रों और सज्जनों आदि सबको नमन करता हूँ । मैं मूर्ति पूजा में विश्वाश रखने वाला एक छोटा सा भक्त (प्रह्लाद) हूँ |

(5)  हरि-हाइड्रोजन रुपी भगवान की शक्ति को सहन करने लिये दिव्य कवच की जरूरत है। पाठक-गण या अन्य जन हाइड्रोजन को सूंघने और आदि प्रयोग करने की कोशिश न करें अन्यथा जान जा सकती है। ऐसा करने पर लेखक किसी भी प्रकार से जिम्मेवार नहीं होगा।

 

लेखक :  एस.  रामायण

sramayan108@gmail.com

www.hriaurhydrogen.com

 

 

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