अध्याय - 22 हरि
और हाइड्रोजन के कुल 51 लक्षण मिलते है। लक्षण-संख्या
=22/51 [ यदि शास्त्र और साइंस दोनों सत्य
है तो यह भी सत्य है कि ईश्वर के हरि-हाइड्रोजन रूप के लिये कार्बन, नाइट्रोजन और आक्सीजन आदि ही माया का कार्य करती है। माया
के प्रतीक वाले सारे तत्व लगभग ऋणायन बनाते है जबकि हरि-हाइड्रोजन मूल रुप से धनायन बनाते है। इस प्रकार
भगवान और उनकी माया के आकर्षण से जगत के कण-कण बंधे हुए है। ] |
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कहा गया है कि ईश्वर एक है और रुप अनेक है। ठीक उसी
प्रकार उनके माया के भी अनेक रूप है। ईश्वर के प्रत्येक रूपों से संबधित माया भी
अलग-अलग प्रकार की होती है। इस माया के प्रभाव से मुक्त
होने के बावजूद ही ईश्वर की प्राप्ति होती है। यह पुस्तक विज्ञान को समर्पित है और
इसके माया का अर्थ भी विज्ञान के अनुसार ही निकाला गया है। प्रत्येक वह चीज जो निरंतर
आकर्षण का कारण हो, उसका ही नाम माया है। यह माया वास्तविक सत्य को पहचानने
और प्राप्त करने में बाधा उत्पन्न करती है। इस माया के प्रभाव से जो आगे निकल जाता
है, वो ईश्वर को प्राप्त कर लेता है। ईश्वर के हरि-हाइड्रोजन
रुप के लिये माया का नाम आक्सीजन है। इस आक्सीजन से सभी प्राणी को क्षण-क्षण
का लगाव होता है। यह संसार ईश्वर और उनकी माया के आकर्षण-बल से बना है
न कि केवल ईश्वर से । ये दोनों मिलकर ही इस संसार को चला रहे है। इस संबध में गीता
में आया है कि
अजोऽपि
सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि
सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥
मैं सभी प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी मैं, अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट
होता हूँ ।
[ गीता 4.6 ]
उपरोक्त
पंक्तियों से पता चलता है कि ईश्वर और माया दो अलग-अलग चीजें है।
परमात्मा के हरि-हाइड्रोजन (धनायन) रुप के लिये माया
का आक्सीजन, नाइट्रोजन और कार्बन (ऋणायन-तत्व) है। हरि-हाइड्रोजन पर धन आवेश और माया (O, N, C ) पर
ऋणावेश होता है। परमात्मा का पूर्ण रुप (सबसे शुद्ध-रुप), सबसे हल्की होने के कारण, गगन (बाह्यमंडल) में पाया जाता है इसलिये उनको गगन-सम
(विष्णु-स्तुति से) कहा जाता है। हरि-हाइड्रोजन, पृथ्वी पर
शुद्ध रुप में कही भी नहीं पाये जाते है। पृथ्वी पर प्रकट होने के लिये अपनी माया
को अधीन करना पड़ता है ।
(a)
हरि-हाइड्रोजन भी कार्बन रुपी माया को
अधीन (आकर्षण-बल से) करके मेथेन (CH4)
और हाइड्रोकार्बन-यौगिकों
के रुप में प्रकट होते है। इस रुप में आकर वो संसार को शक्ति (उर्जा) करते है ।
(b)
हरि-हाइड्रोजन भी नाइट्रोजन रुपी माया
को अधीन (आकर्षण-बल से) करके पवित्र-कर्ता
वायु अमोनिया (NH3)
के रुप में प्रकट होते है। इस रुप
में आकर संसार को पवित्र (साफ) करते है ।
(c)
हरि-हाइड्रोजन आक्सीजन रुपी माया को
अधीन (आकर्षण-बल से) करके पवित्र-कर्ता
और जीवन-दाता द्रव जल (H2O) के रुप में प्रकट होते है। इस रुप में आकर वो संसार में
सभी प्राणियों कों जीवन प्रदान करते है। इस रुप के बिना पवित्र करने का काम (सफाई) भी नहीं हो सकती है ।
ईश्वर
और उनकी माया के बीच के संबधों के संदर्भ में श्रीरामचरितमानस में भी आया है कि
जगत प्रकास्य प्रकाशक रामू ।
मायाधीस ग्यान गुन धामू ॥
जासु सत्यता तें जड़ माया ।
भास सत्य इव मोह सहाया ॥
भावार्थ : जगत को प्रकाशित करने वाले प्रकाशक श्री रामचन्द्रजी जी है। वे माया
के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य सी भासित होती है ॥ [ ब0द0116/4॥ ]
उपरोक्त पंक्तियों में यह बताया गया है कि ईश्वर (हाइड्रोजन) माया (आक्सीजन) का स्वामी अर्थात मालिक है जिसके आधीन में माया
रहती है। माया का कार्बन, आक्सीजन और नाइट्रोजन रूपों का ज्ञान, हमारी ज्ञान-इंद्रियो द्वारा नहीं हो पाता है लेकिन जब हरि-हाइड्रोजन के प्रभाव से (आकर्षण-बल) से क्रमशः जल, अमोनिया और मेथेन (अन्य-हाइड्रोकार्बन) के रुप में होती है तो सत्य
प्रतीत होती है। जल को आंखो से, अमोनिया का नाको से और मेथेन का त्वचा से प्रकट होने का ज्ञान हो पाता है।
माया के आक्सीजन रुप से सभी प्राणियों का पल-पल का लगाव होता है। जो इस माया-आक्सीजन को वश में करके जीने सीख लेता है उसे
योगी (प्राणायाम-रुपी योग वाला योगी) कहते है। जो इस माया के बस में हो जाता है, उसे रोगी (दमा, हार्ट-रोग आदि) कहते है। ये अपने ईक्षानुसार सांस नहीं ले पाते है क्योंकि इन पर आक्सीजन-माया का प्रभाव अधिक प्रबल होता है, इसलिये ये हाँफते है। गीता में प्राणायाम रुपी
योग का वर्णन साफ साफ आया है।
जो लोग (अर्जुन) माया (आक्सीजन) से भागकर युद्ध अर्थात कर्म (श्वसन) नहीं करते है और आत्महत्या (युद्ध छोड़कर भागना) कर लेते है, उनकों न तो इस लोक में सुख
मिल पाता और नहीं परलोक में । वास्तविक योगी (अर्जुन) वही है जो प्राणायाम रुपी योग द्वारा आक्सीजन रुपी माया (संसार) पर काबू पाकर युद्ध अर्थात कर्म (श्वसन) करता है।
उपरोक्त पंक्तियों मैंने ईश्वर (हाइड्रोजन) और उनकी माया (आक्सीजन) के बीच के संबध को बताया है। ईश्वर के रुप, माया और भक्त के प्रकार भी बहुत अलग-अलग है। मैं (लेखक: एस. रामायण) एक विज्ञान-वर्ग का कुशल-छात्र होने के साथ-साथ एक अध्यापक भी रह चुका हूँ । मेरा वास्तविक नाम (आधार-कार्ड के अनुसार): रामायण साह (Ramayan Sah) है। मेरा पता निम्न प्रकार से है। Sramayan108@mail.com, मो0- 6382317128)है। । मैं बैरिया, बलिया उ0प्र0 का निवासी हूँ । मैंने दशवी की परीक्षा अमर शहीद श्री कौशल कुमार इंटर कालेज में पढ़कर पास की है। मैंने प्राचीन ग्रंथों का ज्ञान महात्मा विनोद पांडेय जी की सेवा करके प्राप्त की है और विज्ञान का ज्ञान स्वर्गीय श्री राजनाथ सिंह और अन्य शिक्षकों के माध्यम से प्राप्त की है। महात्मा विनोद पांडेय जी एक महान तपस्वी है और उनका अधिकांश समय प्रभु श्री रामचंद्र के लिये समर्पित होता है। मैं उनकों बार-बार प्रणाम करता हूँ । मैं अपने माता-पिता क्रमशः श्रीमती कमला देवी और श्री गणेश साह के साथ-साथ माता-तुल्य बुआ श्रीमती गिरजा देवी को भी नमन करता हूँ ।
मैं भगवान को वैज्ञानिक तरीके से
मानने वाला एक बड़ा आस्तिक हूँ । मैं मूर्ति-पूजा,जप-तप, हरि-कीर्तन और भजन आदि में विश्वास रखता हूँ ।
भगवान के रुप और उनके माया के रुप के प्रभाव
इतने अधिक है कि बड़े-बड़े ज्ञानी लोग पार नहीं पाते है। मैं तो सिर्फ एक
बालक (प्रह्लाद) हूँ जो उनके अन्य रूपों और उनसे संबंधित माया
पर प्रकाश डाल रहा हूँ । ईश्वर एक है और रुप अनेक है, ठीक उसी
प्रकार उनके माया के भी अनेक रूप है। ईश्वर के प्रत्येक रूपों से संबधित माया भी
अलग-अलग प्रकार की होती है। इस माया के प्रभाव से मुक्त
होने के बावजूद ही ईश्वर की प्राप्ति होती है। जैसे:
Ø
ईश्वर के हाइड्रोजन रुप के लिये माया का नाम आक्सीजन, नाइट्रोजन और कार्बन आदि है। ईश्वर के इस रुप
को प्राप्त करने के लिये, माया के इन रुप को अलग-अलग करना पड़ता है। ईश्वर अपनी इसी माया के साथ मिलकर मृत्युलोक के (पृथ्वी) में माया का जाल फैलाते है। (आक्सीजन=21%, नाइट्रोजन = 78% लगभग)
Ø
ईश्वर के माता-पिता रुप (त्वमेंव-माता च पिता त्वमेंव) के लिये माया का नाम पत्नी (wife/Girl-friend) और पुत्र है। माया के इस
प्रभाव में आसक्त होकर माता-पिता रुपी ईश्वर को अनादर करने वालों को परमात्मा की कभी प्राप्त नहीं हो
सकती है ।
Ø
ईश्वर के सत्य रुप (सत्य-नारायण) के लिये माया का नाम मोह और
स्वार्थ है। मोह और स्वार्थ में पड़कर, सत्य के साथ न देने वालों को परमात्मा की कभी प्राप्त नहीं हो सकती है ।
Ø
ईश्वर के गगन रुप के लिये (गगन-समान, विष्णु-स्तुति) के लिये माया का नाम संसार का गुरुत्वाकर्षण है। माया के इस प्रभाव के कारण, उस अंतरिक्ष में पहुँचना कठिन है। बहुत तप करने (अध्ययन) करने वाले वैज्ञानिक अवश्य ही वहां जा सकते है ।
Ø
ईश्वर के समय (काल-पुरुष) रुप के लिये (काल=समय) के माया का नाम जीवन है। इस
क्षणिक-माया के कारण जन्म-जन्मांतर के समय का ज्ञान नहीं
हो पाता है ।
Ø
ईश्वर के धर्म रुप के लिये (काल=समय) के माया का नाम धन (सत्ता) है। माया के इस प्रभाव से लोग (दुर्योधन) धर्म रुपी ईश्वर (कृष्ण) को भूल जाते है ।
Ø
ओंकार (एक) रुपी ईश्वर के लिये, ईश्वर के अलग-अलग रूप ही माया का कार्य करते है। अलग-अलग रूपों की जाल में बंधकर, ओंकार रुपी ईश्वर का ज्ञान नहीं हो पाता है ।
Ø ईश्वर के आत्मा रुप के लिये, माया का नाम शरीर है। शरीर-सुख और मन-सुख के लिये, अपनी आत्मा का वास्तविक ज्ञान नहीं हो पाता है
।
जब जीवात्मा शरीर का साथ
छोड़ती है तो वो एक साथ माया के उपरोक्त सभी रूपों क्रमशः आक्सीजन, गुरुत्वाकर्षण, पैसा, पत्नी, जीवन, शरीर और मोह आदि से मुक्त हो
जाती है।
आक्सीजन, नाइट्रोजन, और कार्बन आदि में माया के निम्नलिखित गुण विराजमान है।
1.. इस आक्सीजन रुपी माया से 84 लाख प्राणियों का पल-पल का लगाव है। प्राणायाम
रुपी योग द्वारा इसी आक्सीजन रुपी माया पर ही काबू पाया जाता है।
2. इस पृथ्वी को माया नगरी भी
कहा जाता है। यहां पर सुख-दुख, गर्मी-ठंडी का प्रभाव होता रहता है। आक्सीजन और
नाइट्रोजन रुपी माया के प्रभाव केवल इसी माया-नगरी (क्षोभमंडल) में प्रबल रहता है। माया के
इसी जाल ने सभी प्राणियों को घेर रखा है।
3. आक्सीजन आदि रुपी माया पर
ऋणात्मक आवेश होते है जबकि हरि-हाइड्रोजन पर धन-आवेश होते है।
4.. आक्सीजन रुपी माया के प्रबल
प्रभाव को कम करने के लिये सन्यासी हीलियम की मदद गोताखोरो द्वारा ली जाती है।
5..ईलेकट्रान पर भी ऋणावेश होता
है लेकिन गायत्री (महामाया/दुर्गा) की स्वरुप हो सकती है जिनका अवतरण ब्रह्मा, विष्णु और महेश से पहले हुआ
था । इन सभी विषयों पर मेरा रिसर्च-कार्य प्रगति पर है, उन्हें शीघ्र ही आगामी पुस्तक में मेरे (श्रीरामायण) द्वारा व्यक्त किया जा सकता है।
आगामी पुस्तक में माया और आक्सीजन के एक समान लक्षण को विधिवत तरीके से प्रस्तुत
किया जायेगा। [ विधिवत गुण संख्या 33/51]
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